भारत में ब्रिटिश सरकार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीति

भारत में ब्रिटिश सरकार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीति
 
































सबसे पहले बिंदु होगा, 

  1. की सामाजिक और सांस्कृतिक नीति का तात्पर्य क्या है, 
  2.  सरकार की इस नीति का उद्देश्य क्या है, 
  3.  इस नीति का चरण बद्ध विकास क्या है, 


  • 1.1757-1813 [अहस्तक्षेप की नीति], 
  • 2.1813-1857 [सक्रिय हस्तक्षेप की नीति], 
  • 3.1857-1885[ राष्ट्रवाद के दबाव में थोड़ा परिवर्तन वादी स्वरूप अपनाया], 
  • 4.1885 के बाद} इस क्रमबद्ध प्रभावित करने वाले तत्व कौन कौन सी थी , 
  • [ सरकार की अपनी औपनिवेशिक हित, पश्चिमी सभ्यता में बुद्धिवादी विचारधारा:_ जैसे  उपयोगितावादी, मिशनरियों का प्रभाव कुछ पश्चिमी बुद्धिवादी व्यक्ति कुछ तथा भारतीय बुद्धिवादी व्यक्ति], 
  •  इसके बाद कौन-कौन से कानून बनाए गए सुधार के लिए लाए गए अधिनियम, 
  • उसके बाद इसका प्रभाव प्रभाव में दो सकारात्मक प्रभाव और नकारात्मक प्रभाव और 
  •  फिर यहां पर हिस्टोरिकल डिबेट 
  • फिर उसके बाद प्रश्न इतने सारे टॉपिक को लेकर हम आगे बढ़ेंगे| 





ब्रिटिश साम्राज्य का सामाजिक और सांस्कृतिक नीति से तात्पर्य क्या है 


  •  ब्रिटिश कंपनी द्वारा भारत में सम्राज्य विस्तार के क्रम में भारतीय अर्थव्यवस्था एवं प्रशासन पर भी नियंत्रण स्थापित हो गया और इसी क्रम में ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न उभरकर आया कि ब्रिटिश सरकार का भारतीय समाज और संस्कृति के संदर्भ में क्या व्यवहार होना चाहिए| 
  • संक्षेप में भारतीय समाज और संस्कृति के साथ अपने संबंधों के निर्धारण के संबंध में प्रस्तुत किया गया सिद्धांत को ही ब्रिटिश सरकार की सामाजिक और सांस्कृतिक नीति कहते हैं, जोकि ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक हितों के अनुरूप समय-समय पर संशोधित तुम परिमार्जित होती रही| 

ब्रिटिश सरकार का सामाजिक और सांस्कृतिक नीति का उद्देश्य क्या था 

  • भारतीय रूढ़िग्रस्त आप्रगतिशील संस्थाओं ,परंपराओं ,मान्यताओं में, तार्किक ढंग से परिवर्तन लाते हुए, एवं उसका स्वरूप मानवतावादी बनाते हुए ब्रिटिश सम्राज्य की छवि को भारतीय लोगों के बीच प्रजा हितैषी एवं न्याय प्रिय सम्राज्य के रूप में स्थापित करना, ताकि ब्रिटिश सरकार का साम्राज्य सामाजिक आधार पर व्यापक हो सके| 
  • ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न आर्थिक संभावनाओं को मजबूत आधार देने के लिए भारत को कच्चे माल कि उत्पादक एवं ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का बाजार के रूप में तब्दील करना और इस आर्थिक हित के आपूर्ति के लिए भी भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में आंशिक आधुनिकीकरण अनिवार्य था| 
  • ब्रिटिश कंपनी के प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए एक ऐसा वर्ग तैयार करना जो कम वेतन पर कंपनी के कामों को निष्पादित कर सके[ चला सके] 


ब्रिटिश कंपनी की सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीति के विकास का विभिन्न चरण:- 

1. पहला चरण 1757-1813:_ यह चरण ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में क्षेत्रीय विस्तार का चरण था और इस चरण में ब्रिटिश सरकार अपनी यर्थाथवादी रणनीतियों के कारण भारतीय समाज और संस्कृति के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करना चाहती थी क्योंकि ऐसा कोई छेड़छाड़ भारतीय जनमानस में आक्रोश पैदा कर सकता है और यह आक्रोश  नवस्थापित ब्रिटिश सरकार के भविष्य के लिए घातक साबित होगा|
    लेकिन इस विचार के समानांतर पश्चात बुद्धिवादी एवं मानवतावादी व्यक्तियों एक वर्ग भी सक्रिय था जिसमें पुनर्जागरण की चेतना था,जैसे:- विलियम जोंस, विल किंग्स, इत्यादि यह प्रबुद्ध व्यक्ति भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का सम्मान करते थे, और इनकी मान्यता थी कि भारत के उत्तम साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद होना चाहिए ताकि भारतीय प्रशासक तथा भारत में कंपनी के प्रशासक भारतीय संस्कृति के अनुरूप नियमों का निर्माण कर सके|

2. द्वितीय चरण 1813-1857:_ इस अवधि में भारत में ब्रिटिश कंपनी ने अपनी पूर्वर्ती हस्तक्षेप की नीति का  परित्याग करते हुए सक्रिय हस्तक्षेप की नीति को प्रोत्साहन देना शुरू किया क्योंकि इस अवधि में कुछ ऐसी परिस्थितियां उभर कर आ रही थी जिसमें ब्रिटिश सरकार की सांस्कृतिक नीतियों में बुनियादी स्तर पर परिवर्तन लाना अनिवार्य कर दिया| दूसरे शब्दों में इस अवधि में ब्रिटिश सरकार की सांस्कृतिक नीति भारतीय समाज एवं संस्कृति में आंशिक आधुनिकीकरण लाने के विचार से प्रेरित थी | 19वीं सदी के प्रारंभ तक ब्रिटेन में होने वाली औद्योगिक क्रांति के कारण औद्योगिक पूंजीवाद का विचारधारा तेजी से उभर कर आ रहा था और इस औद्योगिक पूंजीवाद के हितों को पूरा करने के लिए भारत को कच्चे माल का उत्पादक एवं ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के लिए एक बेहतर बाजार के रूप में तब्दील करना था और बेहतर बाजार के लिए समाज के स्वरुप में परिवर्तन करना भी अनिवार्य था|
                            इसी दौर में मिल एवं वेन्थन जैसा विचारकों द्वारा प्रतिपादित उपयोगितावादी सिद्धांत तेजी से बढ़ रहा था इस सिद्धांत का केंद्रीय मान्यता था की अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख के चेतना करते हुए, समाज ,धर्म, संस्कृति,साहित्य, अर्थव्यवस्था राजनीति प्रशासन एवं न्याय आधि स्तर पर आधुनिक विचारों के आरोप में परिवर्तन होना चाहिए|फलतः  इसी विचारधारा से प्रभावित होकर मूल रूप से बैंटिक एवं डलहौजी जैसे गवर्नल जनरल ने कई सुधारात्मक कार्य प्रस्तुत किए जैसे सती प्रथा का उन्मूलन1829, दास प्रथा का उन्मूलन1843, तथा विधवा पुनर्विवाह अधिनियम1856 इत्यादि इसी क्रम में ईसाई मिशनरियों का भी स्वयं अपने द्वारा सुधार एवं सरकार के ऊपर भी सुधार के लिए नैतिक दबाव के माध्यम से भारतीय समाज और धर्म के क्षेत्र में कुछ सुधार हुआ विशेष तौर पर महिला एवं भारतीय समाज के निम्न वर्गों में शिक्षा एवं प्रसार करने में ईसाई मिशनरियों का योगदान रहा इन सबके अलावा एक भारतीय बुद्धिवादी वर्ग भी भारतीय धर्म और संस्कार के उद्देश्य से इस अवधि में सक्रिय था राजा राम मोहन राय ,ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे लोगों ने कुछ ब्रिटिश बुद्धिवादी एवं प्रबुद्ध व्यक्तियों के साथ मिलकर भारतीय समाज और संस्कृति के क्षेत्र में तर्कसंगत सुधार के लिए अपने आप को प्रस्तुत करते रहे जैसे डेविड हेयर के साथ मिलकर राम मोहन राय ने 1817 में कोलकाता में हिंदू कॉलेज की स्थापना किया एलेग्जेंडर डॉग का भी योगदान आधुनिक शिक्षा के विकास में रहा ईश्वर चंद्र विद्यासागर को 25 से ज्यादा बालिका महाविद्यालयों का श्रेय दिया जाता है|

3. तृतीय चरण 1857-1885:_ उल्लेखनीय है कि 1857 के बाद ब्रिटिश सरकार की सामाजिक और सांस्कृतिक नीति उपयोगितावाद बुद्धिवाद एवं प्रगतिशीलता को रास्ते पर छोड़ते हुए, आप्रगतिशीलता रुढ़िवादिता की ओर मुड़ गई मनो 57 के विद्रोह ने ब्रिटिश कंपनी के मन में उसके  सुधारात्मक नीति को लेकर भ्रम एवं भय पैदा कर दिया इस दौर में ब्रिटिश सरकार ने अपने साम्राज्य को स्थिरता एवं वैधता प्रदान करने के लिए कुछ नवीन साम्राज्यवादी मान्यताओं को प्रस्तुत करना शुरू किया- वह था
1. श्वेत व्यक्ति का कंधे का बोझ का सिद्धांत जिसे वाइट मैन बोर्ड एंड कहते हैं
2, न्यास का सिद्धांत


       वाइट मैन वार्डन का सिद्धांत का आशय है कि भारतीय लोग अयोग्य हैं असभ्य हैऔर उन्हें एक सभ्य नागरिक बनाना ब्रिटिश लोगों का नैतिक उत्तरदायित्व है, जबकि न्यास का सिद्धांत कहां से है कि भारत में शासन ब्रिटिश लोग अपने हीतो ना करके
भारतीय लोगों में करते हैं अर्थात भारत का साम्राज्य ब्रिटिश लोगों के लिए एक ट्रस्ट है जिसका उपयोग भारतीय लोगों के लिए भौतिक उन्नति के लिए किया जाता है| लेकिन ब्रिटिश सरकार इस दौर में भारत के सामाजिक एवं धार्मिक समस्याओं से अपने आपको अलग रखने का प्रयास किया फिर भी इस दौर में कुछ संवेदनशील बुद्धिवादी भारतीय सुधारको के प्रभाव से समाज और धर्म के क्षेत्र में कुछ संशोधन हुए जैसे 1872 में ब्रह्म विवाह अधिनियम/ देसी विवाह अधिनियम[native marrage act]/ सिविल विवाह अधिनियम पारित हुआ जिसके तहत पुरुषों का विवाह का न्यूनतम युद्ध 18 वर्ष और लड़कियों का विवाह का उम्र 14 वर्ष निर्धारित किया गया और इसके साथ ही साथ बहुविवाह के परंपरा को भी गैरकानूनी घोषित कर दिया गया |

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